नई दिल्ली, 12 दिसंबर 2025 – ह्यूमन राइट्स प्रोटेक्शन सेल (एचआरपीसी) के अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार अधिवेशन-2025 में भारत, नेपाल, ब्रिटेन और स्वीडन के प्रतिनिधियों ने जो बातें कही, उन्हें सुनकर लगा कि अगर ये विचार हवा में उड़कर कागजों पर ही नहीं रुक गए तो दुनिया वाकई बदल सकती है। छह सत्रों में फैले इस आयोजन में हर वक्ता ने अपनी धरती की मिट्टी का सुगंध के साथ वैश्विक चिंताओं को आवाज दी।
भारत के पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त यशवर्धन कुमार सिन्हा ने कहा, “सूचना का अधिकार लोकतंत्र का सबसे मजबूत हथियार है – इसे भ्रष्टाचार की तिजोरी में ताला और आम आदमी के हाथ में चाबी समझिए।” दिल्ली हाई कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश तलवंत सिंह ने कृत्रिम बुद्धिमत्ता पर चेताया, “एआई अगर बिना नैतिक ब्रेक के दौड़ेगा तो नौकरियां ही नहीं, इंसान की निजता भी कुचल देगा।” मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश एच.पी. सिंह ने बाल तस्करी पर आवाज उठाई कि “बच्चों को बचाना मतलब भविष्य बचाना है।” वहीं एचआरपीसी चेयरपर्सन डॉ. ज्योति जोंग्लुजू का एक वाक्य पूरा अधिवेशन समेट ले गया – “समान अधिकार के बिना कोई सभ्यता जीवित नहीं रह सकती।”
नेपाल से पद्मश्री अनुराधा कोइराला ने तीन दशकों का दर्द एक पंक्ति में पिरो दिया, “महिला और बाल तस्करी रोकने का सबसे सस्ता और कारगर तरीका है – उन्हें पढ़ाओ और रोजगार दो।” उनकी बात सुनकर लगा कि सीमाएँ कितनी भी ऊँची क्यों न हों, इंसानियत की दीवार तोड़ने में देर नहीं लगती।
ब्रिटेन से आईं अंतर्राष्ट्रीय मीडिएटर डॉ. रेनुराज ने मुस्कुराते हुए कहा, “दुनिया के सबसे महंगे युद्ध भी अगर मध्यस्थता से सुलझ जाएँ तो बचत कितनी होगी – पैसे की भी और जान की भी।” उनकी बात में शांति का ऐसा नरम लहजा था कि युद्ध करने वाले भी शरमा जाएँ।
स्वीडन की महिला अधिकार कार्यकर्ता डॉ. सोनिया ने सीधे-सीधे कहा, “लैंगिक समानता कोई फैशन नहीं, यह मानवता की बुनियाद है। जब तक आधी आबादी पीछे रहेगी, पूरी इंसानियत लंगड़ाएगी।”
ये सब सुनकर और पढ़कर अच्छा तो बहुत लगता है। लेकिन सवाल वही पुराना है – क्या ये शब्द अब सिर्फ़ हेडलाइन बनकर रह जाएँगे या इनकी गूँज नीतियों, कानूनों और हमारे रोज़मर्रा के व्यवहार तक पहुँचेगी?
शायद यही सबसे हल्का-फुल्का कटाक्ष है कि हम सब इतने अच्छे श्रोता बन गए हैं कि तालियाँ बजाना तो सीख लिया, लेकिन जब ताली बजाने की बजाय हाथ बढ़ाकर किसी का हाथ थामने की बारी आती है – तब हाथ जेब में चले जाते हैं।
तो आज का संकल्प बस यही – अगली बार जब कोई मानवाधिकार की बात करे, तो हम सिर्फ़ “वाह-वाह” न कहें, बल्कि पूछें – “अब करेंगे क्या?” क्योंकि अच्छी बातें सुनना आसान है, उन्हें अमल में लाना ही असली इम्तिहान है। और इम्तिहान देने का वक्त हमेशा अभी होता है, कल नहीं।
